आर के मिश्रा
अब एक बार फिर देश में लोकसभा आम चुनाव होने वाले हैं। सभी राजनीतिक दल अपनी अपनी सेनाएं और रणनीतियां दुरुस्त करने में लगे हैं। गठबंधनों के दौर जारी हैं। चुनावी मौसम में दल बदलने वाले नेता भी नफे-नुकसान के आकलन के साथ अपनी आस्था बदलकर दल बदलने में लगे हैं। गठबंधन के लिए नेताओं और दलों में मोल-तोल भी चल रहा है। सीटों के बंटवारे को लेकर खींचतान भी जारी है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आता जा रहा है उसी के अनुसार नेताओं की भाषा का स्तर गिरता जा रहा है। आरोप-प्रत्यारोप का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। पार्टी स्तर से लेकर व्यक्तिगत स्तर तक एक दूसरे के खिलाफ भी टीका-टिप्पणी के दौर चलेंगे। कहीं जातिवाद के नाम पर, कहीं धर्म-संप्रदाय के नाम पर वोटों के ध्रुवीकरण की रणनीतियां होंगी। नेताओं की बड़ी-बड़ी जनसभाएं, रोड शो, रैलियां होंगी। इन सभाओं में नेता दूसरे दल अथवा दूसरे नेताओं की बुराइयां करेंगे और जनता तालियां बजाएगी। इन सब के अलावा सभी पार्टियां चुनावी घोषणा पत्र, संकल्प पत्र, विजन डॉक्यूमेंट जारी करेंगी। इन घोषणा पत्रों में हमेशा की तरह जनता के लिए बड़े-बड़े लोकलुभावन वादे होंगे। अधिकांशतः देखा गया है कि इन दलों के चुनावी घोषणा पत्र सिर्फ चुनाव जीतने के लिए महज एक हथकंडा ही नजर आता है। क्योंकि चुनाव जीतने के बाद इस घोषणापत्र में किए गए वादे अक्सर पूरे नहीं होते। फिर अगला चुनाव आता है तो पिछले चुनाव के वादे भुला दिए जाते हैं और नए वादों का पिटारा परोस दिया जाता है। लोकसभा चुनाव हो अथवा राज्यों के विधानसभा चुनाव सभी चुनावों में यही दस्तूर चला आ रहा है। हमारे यहां लोकतंत्र में यही परंपरा चली आ रही है। आखिर इन घोषणा पत्रों का क्या औचित्य है? जब इस पर अमल तो होता नहीं। अच्छा होता यदि यह राजनीतिक दल लंबे चैड़े वादों का पिटारा ना परोस कर उतने ही वादे घोषणा पत्रों में करें जितने लागू हो सकें। इस पर भी दलों की जवाबदेही क्यों ना होना चाहिए? यह विचारणीय प्रश्न है।