मध्यकालीन भारत में कल्पना से भी ज्यादा अंधकार युग था। ऐसे घोर अंधकारमय काल में 11 अप्रैल 1827 को पुणे (महाराष्ट्र) में महात्मा ज्योतिराव फुले का जन्म ज्ञान के उदय की भांति हुआ। यह वही समय था, जब किसान ने एक बार साहूकार से कर्ज लिया, तो किसान चक्रवृद्धि ब्याज के चक्कर में साहूकार का दास बनकर रह जाता था। किसान क्या किसान की औलादें भी साहूकारों के बंधुआ मजदूर बन जाती थीं। ब्राह्मण जाति में पैदा हुआ व्यक्ति भले ही वेद की लाईन न जानता हो, मगर चर्तुवेदी कहलाता थाउस समय सबसे बुरी हालात महिलाओं, शूद्रों-अतिशुद्रों की थी, आज जिन्हें हम पिछड़ा वर्ग व अनुसूचित वर्ग कहते हैं। महात्मा फुले माली जाति से सम्बन्धित थे, जो तब शुद्र कहे जाते थे। शुद्रों को मन्दिर में जाकर पूजा-अर्चना करने की अनुमति नहीं थीशुद्र मन्दिर से दूर खड़ा होकर केवल मन्दिर के कलश को देखकर प्रणाम कर सकते थे। शुद्रों को पढ़ने लिखने का भी अधिकार नहीं था। शुद्रों का केवल एक ही धर्म था, जीवन भर मरते दम तक सवर्णो की सेवा करना। शुद्र पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार उसी चक्र में फंसे रहे, इसके लिए ब्राह्मणों ने बड़ी साजिश रची हुई थी। स्वयं तुलसीदास जी द्वारा रामचरित मानस में लिखा श्लोक
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।
और पूजिये विप्र शील गुण हीना, नहीं शुद्र गुण, ज्ञान प्रवीणा ॥
का कड़ाई से पालन होता था। निर्विवाद रूप से भारत में वह घौर अंधकार युग था। हर तरफ अंधकार ही अंधकार फैला हुआ था। ऐसे समय में सामाजिक क्रांति के प्रेणता महात्मा ज्योतिराव फुले को बचपन से ही संघर्ष करना पड़ा। जन्म से कुछ महीने बाद ही उनकी माँ चिमणाबाई का साया उनके सिर से उठ गया था। इसलिए पिता गोविन्दराव जी ने अपने दोनों बेटों को अपनी मोसेरी बहन सगुणाबाई के द्वारा लालन-पालन करवाया। शिक्षा प्राप्त करने में महात्मा फूले को ब्राह्मणों के अवरोध का सामना करना पड़ा। शिक्षा प्राप्त करते समय 21 वर्ष की आयु होने पर ज्योतिराव फुले जिस जातिवाद को देखते आ रहे थे, उस पुरातन जाति व्यवस्था का दंश उन्हें झेलना पड़ा। जीवन में घटित घटनाओं के विश्लेषण से ही व्यक्ति के दृष्टिकोण का अहसास हो जाता है। ब्राह्मण दोस्त की शादी में एक घटना घटी, जिसमें महात्मा फुले को केवल शुद्र होने के कारण ब्राह्मण दोस्त की शादी से धक्के देकर भगा दिया और सरेआम शूद्र कहकर अपमानित किया।
बारात में अपमान होने पर उस कम उम्र में उन्हें कितना गहरा आघात लगा होगा, वह कल्पना से बाहर है। उसी आघात के कारण ही अपमान के अहसास से ही अस्मिता का सघंर्ष शुरु हुआ और महात्मा ज्योतिराव फुले ने भारत के प्राचीन इतिहास का गहनता से अध्ययन किया और वर्तमान में प्रस्थापित वर्ण व्यवस्था का बहुत ही तार्किक ढंग से विश्लेषण कर निष्कर्ष निकाला
विद्या बिना मति गई। मति बिना नीति गई। नीति बिना गति गई। गति बिना वित्त गया। वित्त बिना शूद्र टूट गया। एक विद्या के कारण इतना बड़ा अनर्थ हुआ ॥
महात्मा फुले ने छत्रपति शिवाजी महाराज को अपना प्रेरणा स्त्रोत माना और उनकी समाधि स्थल को खोज निकाला तथा शिव जयंती की शुरुआत की। उसी समय सन् 1848 में अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले के सहयोग से भारत में पहली कन्या पाठशाला शुरु की। सावित्रीबाई फुले को देश की पहली महिला अध्यापिका होने का गौरव प्राप्त हुआ। ज्योतिराव फुले ने अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए क्रान्ति के पथ पर ग्रह त्याग भी कियाग्रह त्याग करने में वे ब्राह्मणों के षड़यंत्र का शिकार बने। ब्राह्मणों के लगातार विरोध के बाद भी ज्योतिरावफुले लगातार अपने उद्देश्यों शिक्षा, नारी उत्थान, किसानों का सहयोग, विधवा उत्थान, विधवा मुण्डन का विरोध, छूआछूत पर करारी चोट व अंधे T-धार्मिकता पर प्रहार करते रहे। ज्योतिराव फुले जी को सन् 1888 में महात्मा की उपाधि मिली तथा सत्यशोधक समाज की स्थापना कर नये समाज का निर्माण किया।
27 नवम्बर 1890 को लकवा होने की वजह से उनकी हालत खराब हो गई और भारत में वास्तविक ज्योति नाम के अनुरूप महान विचारक, क्रान्तिकारी समाज सुधारक लेखक मुक्तिदाता पंचतत्व में विलीन हो गये।
रामचरित मानस में लिखा श्लोव ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, और पूजिये विप्र शील का कड़ाई से पालन होता था। फैला हुआ था। ऐसे समय में सा जन्म से कछ महीने ----