अपराध और सोंच

बढ़ते अपराध और हमारी सोंच


 



 


एस आर अबरोल
शहरीकरण के खतरों को समझने के लिए आज एक मात्र रास्ता है समाचार पत्रों को पढ़ना। समाचार आज साहित्य की तरह हमारे समाज का दर्पण बन गया है, इसलिए शहरों की आबादी बढ़ रही है, सम्पन्नता बढ़ रही है, तब भी शहरों की समस्याएं कम नहीं हो रही हैं।
ग्राम पंचायतें बन गई हंै, रोजगार गारंटी योजनाओं में करोड़ों का धन खर्च हो रहा है, फिर भी ग्रामों से ग्रामीणों की भीड़ लगातार शहरों की ओर दौड़ रही है क्योंकि ग्रामों में उच्च शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई आदि की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है। सारी विकास की योजनाओं के केन्द्र में शहर हैं।
शहरों में व्यवस्था हो नहीं पा रही। झुग्गी झोपड़ियों अपने पैर पसार रही हैं। गन्दगी बढ़ रही है, बीमारियां फैल रही हैं और अपराध बढ़ रहे हैं।
भारी जनसंख्या वाले शहरों में ही आतंकवाद प्रश्रय पाता है। वहां भीड़ भरे बाजारों में अपराधी अपराध कर गायब हो जाते हैं। शहरों में कोई किसी को नहीं जानता। किसी के पास समय नहीं है। छोटे कस्बे और ग्रामों में यह स्थिति नहीं है।
अपराधों की जड़ में लोभ, लालच और स्वार्थ रहते हैं। हमने देखा कि नगर में  हुए अधिकांश अपराध आर्थिक हैं। छोटे कस्बे और गांवों में कोई भी इस प्रकार की घटना को अंजाम नहीं दे सकता क्योंकि वहां सब चेहरे परिचित होते हैं।
बड़े शहरों में विशाल इमारतें, विशाल उद्योग, आयोजन होते हंै तो वृहत अपराध भी संपन्न होते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने बहुत सोच विचार का ग्राम संस्कृति का विकास किया था। वे बड़े शहरों के पक्ष में नहीं थे। केवल राजधानी और बड़े उद्योग केन्द्र ही भीड़भाड़ वाले होते थे किन्तु उनकी व्यवस्था भी सरल थी। उसमें दिखावा नहीं था।
हमारी सरकारों ने ग्राम संस्कृति को महत्त्व नहीं दिया, विशाल नगरों को लक्ष्य बनाया। हम अभी भी अपने नगर को न्यूयार्क और पेरिस बनाने की घोषणा करते रहते हैं किन्तु वैसी जागरूकता और योग्यता पर ध्यान नहीं देते। फल स्वरूप अपराधों के केन्द्र नगरों में स्थापित होते जा रहे हैं।
क्या है देश की स्थिति:- आप भी अपने अपने क्षेत्र के समाचार पत्रों में झांकेंगे तो आप पाएंगे कि वहां भी लगातार अपराध वृद्धि पा रहे हैं। अपने टी. वी. चैनल्स को खोलिए और देखिए। अपराध, षड़यंत्र के एक से एक समाचार आपकी आंखों के सामने होंगे। आप देखते ही होंगे, टी. वी. चैनल्स बड़े मनोयोग से इन्हें तैयार करके दिखाते हैं।
आइए देखंे क्या है देश में अपराधों की वर्तमान स्थिति। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े इस प्रकार हैं।
भारत में प्रति 29 मिनट मे ंएक बलात्कार, 19 मिनट में एक हत्या, 23 मिनट में एक अपहरण, 77 मिनट में एक दहेज हत्या, 15 मिनट में एक बाल यौन शोषण, 03 मिनट में कानून भंग, 10 मिनट में धोखाधड़ी, 2 घण्टे में एक डकैती, 09 मिनट में दंगा फसाद, 02 मिनट में चोरी, 05 मिनट में प्रापर्टी क्राइम, प्रत्येक 35 मिनट में एक बच्चा अपराध का शिकार।
ये वे आंकडे़ हैं जो पुलिस स्टेशन में दर्ज हैं। जो अपराध हुए और पुलिस स्टेशन तक न आ पाए, उनकी कल्पना आप कीजिए।
क्या है कारण:- शहरी अपराधों के बढ़ने के कारणों को हम सब जानते हैं। सरकार भी जानती है और पुलिस प्रशासन की जड़ में तो ये व्याप्त ही हैं, इसलिए उसकी विस्तृत विवेचना आवश्यक नहीं लगती। सब जानते हैं कि राजनीति का अपराधिकरण हो गया है। हमारे जनप्रतिनिधि ही अपराधी प्रवृत्ति के हो गए तो उनके कार्यकर्ता कैसे दूध के धुले होंगे। उनका कार्य और व्यवहार तो हम देख ही रहे हैं। हर पुलिस स्टेशन राजनीतिक दबाव का अनुभव करता है।
अब तो पुलिस प्रशासन के कर्मचारी भी इस या उस राजनीतिक गुट के माने जाने लगे है। इस स्थिति के लिए राजनेता कम, हम ही अधिक जिम्मेवार हैं। हम प्रजातंत्र में उनका चुनाव कर उन्हें सत्ता में पहुंचाते है। हमारे वोट की ताकत से ही वे यह नंगा नाच कर पाते हैं, इसलिए अब आम नागरिकों की जिम्मेदारी ही अधिक है। हम वोट अवश्य करें, बिना लालच और भय के वोट करें, अपनी अन्तरआत्मा से सही व्यक्ति को वोट करें। प्रजातंत्र में वोट का हंटर राजनेताओं के हर मर्ज की दवा है।
हम यह भी अनुभव करते हैं कि अपराधी प्रवृत्ति के लोगों पर सामाजिक दबाव नहीं रह गया है। एक समय था जब अपराध करने वाला अपना मुंह छिपाता फिरता था और शर्म से गढ़ जाता था। उसके परिवार और रिश्तेदार तक शर्म से मुंह छिपाते थे। एक धिक्कार का भाव था उनके प्रति।
आज यह सामाजिक दबाव नहीं है। आज तो अपराधी जेल से मुस्कुराता, हंसता नायक की तरह सिर उठा कर बाहर आता है। कुछ मामलों में देखा गया है कि जेल के फाटक पर उसके समर्थक जय जयकार कर जुलूस के रूप में स्वागत करते उसे नगर में लाते हैं। अदालतों में अपराधी के समर्थकों की भीड़ जमा रहती है। पुलिस प्रशासन को व्यवस्था कायम करने में श्रम करना पड़ता है। यह स्थिति स्पष्ट करती है कि अब सामाजिक दबाव नहीं है। हम सत्ता और पूंजी का सम्मान कर रहे हैं। नैतिक पक्ष को अब महत्त्व नहीं देते। हमारे लिए यह शर्म की बात है। तब अपराध रूके कैसे?
हमारे कानूनों में पोलमपोल तो है ही, अपराधी साक्ष्य के अभाव में छूट जाते हैं। साक्ष्य भय से, लालच से न्यायालय में बदल जाते है। फिर हर जगह भ्रष्टाचार तो है ही, इसलिए बाकी कसर न्यायालय में पूरी हो जाती है।
भीड़ भरे शहरी क्षेत्रों में हमारी संस्कृति, संस्कार, नैतिकता दम तोड़ रही है। आज नहीं तो कल हमें विकेंद्रित समाज व्यवस्था कायम कर ग्रामों की ओर आना पड़ेगा। हमारी सरकारों को नीतियां बदलनी पड़ेगी। अगर ग्रामों के समूहों में विकास और औद्योगिक केन्द्र हो तो शहर कौन आना चाहेगा, इसलिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की आवश्यकता है।