सच्चे शहीदे आजम थे भगत सिंह

 



 


शहीदे आजम कहे जाने वाले  भगत सिंह नौजवानों के दिलों में शहादत के  87 वर्ष बाद भी हैं जिंदा हैं और लगता है जैसे कह रहें हों -
‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,देखना है जोर कितना बाजू ए कातिल में है।’
भले ही शहीदों की मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले का भाव गायब सा हो गया है पर वे देश की आत्मा व ह्रदय में आज भी रचे- बसे हैं और सदा रहेंगें भी।
1907 में पंजाब के लायलपुर गाँव में समाज सुधारक सरदार अर्जुन सिंह,के बेटे  सरदार किशन सिंह के घर विद्यावती की कोख से जन्मे  शहीदे आजम‘ कहे जाने वाले  भगत सिंह के जन्म के समय पिता और दोनों चाचा जेल में बंद थे। इनके पैदा होते ही वे तीनांे उसी दिन छूट गए, इस कारण भगत सिंह को परिवार में बड़ा भाग्यशाली माना गया। इसी कारण दादी जैकौर ने अपने पोते भगतसिंह को प्यार से ‘भागोवाला’ कहती  थीं।  8 - 10 वर्ष की उम्र से ही क्रांतिकारियों की जीवनियाँ पढ़ने वाले भगत सिंह के तर्कों को काटना बचपन से ही मुश्किल था। क्रांतिकारियों में वें अपने चाचा  अजीत सिंह और करतार सिंह साराभा को अपना आदर्श मानते थे। साराभा का चित्रा सदैव उनकी जेब में रहता था।
गरम था खून:
भगत सिंह बचपन से ही गरम खून के थे। देश पर राज करते अंग्रेज उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाते थे और वे पल पल  यही चाहते थे कि वे हमारा वतन छोड़ जाएं। उनके अत्याचारों से भगत सिंह पहले ही तिलमिलाए रहते थे और 1919 में जलियावाला बाग की घटना से  भगत सिंह क्रोध से जल उठे और घटना के अगले दिन वे स्कूल जाने के बहाने सीधे जलियावाला बाग पहुंचे और खून से लथपथ मिट्टी को उस बोतल में भर लिया जिसे वो अपने साथ लाये थे। वो उस मिट्टी पर प्रतिदिन रोज फूल माला चढाते थे।
नेशनल कालेज में भगत सिंह का परिचय प्रमुख रूप से उग्र विचारों के  सुखदेव, भगवती चरण वोहरा, यशपाल, विजयकुमार, छैलबिहारी, झंडा सिंह और जयगोपाल से हुआ। सुखदेव और भगवतीचरण भगत सिंह के सबसे घनिष्ठ मित्रा थे। भगत सिंह और सुखदेव तो एक प्राण दो देह हो गये। तीनों मित्रों पर समाजवाद और कम्युनिज़्म व माक्र्स की पुस्तकों का गहरा प्रभाव हुआ।  घरवालों के  विवाह करने को कहने पर  भगत सिंह ने कहा कि उनका विवाह तो आजादी की बलिवेदी से हो चुका है और विवाह  की बेड़ियाँ वो अपने पैर में नहीं पहन सकते।
मिले दो दीवाने,  भगत और आजाद:
आग से भरे भगत सिंह के समाजवादी विचारों से आजाद काफी प्रभावित थे। जल्दी ही भगत सिंह आजाद के प्रिय बन गए। उस समय तक रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्ला खान शहीद हो चुके थे और आजाद टूट से गए थे किन्तु भगत सिंह ने उन्हें हिम्मत दी और अपने मित्रों सुखदेव व राजगुरु से मिलवाया जो कुशल निशानेबाज और बहुत साहसी थे।




किया  सांडर्स का वध:
लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन के समय लाला लाजपत राय पर पुलिस अधिकारी स्काॅट के सहयोगी सांडर्स ने लाठी से प्रहार किया जिससे लालाजी के सीने पर गंभीर चोटें आयीं और 17 नवम्बर 1928 को उनकी मृत्यु हो गयी। भगत सिंह,सुखदेव,आजाद और राजगुरु ने लाला लाजपत राय  की मृत्यु का प्रतिशोध  लेने की ठानी। इसके सूत्राधार सुखदेव बने। भगत सिंह और राजगुरु को वध का काम सौंपा गया और चंद्रशेखर आजाद को उन दोनों की रक्षा का। 17 दिसंबर 1928 को जयगोपाल के इशारा करने पर भगत सिंह और राजगुरु ने स्काॅट के धोखे में सांडर्स का वध कर दिया क्योंकि मुखबिरी करने वाले जयगोपाल से पहचानने में चूक हो गयी थी और  एक अन्य सिपाही भी मारा गया मगर तीनांे घटना स्थल से सुरक्षित निकल गए।
सांडर्स की हत्या ने पूरे देश में खलबली मचा दी और पुलिस भगत सिंह,आजाद  और राजगुरु को ढूँढने लगी। भगत सिंह ने अपनी दाढ़ी सफाचट करवा ली और विलायती टोपी व ओवरकोट  पहन कर विलायती बन गए और भगवती चरण की पत्नी दुर्गा भाभी उनकी पत्नी के वेश में  और राजगुरु नौकर के वेश में लाहौर से सुरक्षित निकल गए।
संसद में बम फेंक,  हिलाया देशः  
भगत सिंहं ने फ्रांस के क्रांतिकारी वेलां से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने वेलां की तरह  संसद में बम फोड़ कर सबको चैंका देने की सोची। आजाद को भी योजना पसंद आई पर वे भगत सिंह को इस काम पर भेजना नहीं चाहते थे किन्तु भगत सिंह की हठ के आगे विवश हो कर स्वीकृति देनी पड़ी।  भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को संसद में बम फेंकने के बाद  भागने की बजाय अपने को गिरफ्तार करवाया ताकि वे मुकदमे के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत का भन्डा फोड़ सकें। उन्होंने रक्तपात से बचने के लिए जान बूझ कर संसद में  खाली जगह  दो  बम फोड़े। बड़े जोर से -‘इन्कलाब जिंदाबाद!’ और साम्राज्यवाद का नाश हो। के नारे लगाए और उसके बाद कुछ पर्चे फेंके जिनमें लिखा था - ‘बहरों को सुनाने के लिए लिए धमाके की आवश्यकता होती है। उसके बाद उन्होंने अपने आप को गिरफ्तार करवाया। इस घटना ने पूरे भारत और वायसराय के साथ इंग्लैंड को भी हिला कर रख दिया और भगत सिंह और दत्त नौजवानों की प्रेरणा बन गए और उनका दिया गया नारा ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ राष्ट्रीय नारा बन गया।  
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर मुकदमा चला और मुकदमे में भगत सिंह ने अपना बयान दिया - हमने बम किसी की जान लेने के लिए नहीं बल्कि अंग्रेजी हुकूमत को यह चेतावनी देने के लिए फोड़ा कि भारत अब जाग रहा है, तुम हमंे मार सकते हो, हमारे विचारों को नहीं। हैं जिस प्रकार आयरलैंड और फ्रांस स्वतंत्रा हुआ, उसी प्रकार भारत भी स्वतंत्रा हो कर रहेगा और भारत के स्वतंत्रा होने तक नौजवान बार बार अपनी जान देते रहेंगे और फांसी के तख्ते पर चिल्ला कर कहेंगे - ‘इन्कलाब जिंदाबाद!’
भगत सिंह और दत्त के इस बयान ने उन्हें जनता का नायक बना दिया। अंग्रेजों ने भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को बम फेंकने के अपराध में आजीवन कारावास का दंड दिया पर जय गोपाल सरकारी गवाह बन गया। भगत सिंह और उनके साथियों ने मुकदमे को बहुत लम्बा खींचा,कभी भगत सिंह ऐसे ऐसे बयान दे देते जिससे जज तिलमिला उठता था। अंग्रेजों ने भगत सिंह और सुखदेव को भी एक दूसरे के प्रति भड़काने का प्रयत्न किया लेकिन वें  विफल रहे।  
जेल में भूख हड़ताल:
भगत सिंह और उनके साथियों ने जेल में क्रांतिकारियों पर हो रहे अत्याचारों के विरोध में  भूख हड़ताल की। हड़ताल तोड़ने की कई कोशिश की लेकिन असफल हुई। इधर जनता का गुस्सा अंग्रेजों के प्रति और क्रांतिकारियों के प्रति प्रेम बढ़ता जा रहा था। पूरे देश में आजादी के दीवानों ने भूख  हड़ताल शुरू कर दी जिससे अंग्रेजी हुकूमत बहुत डर गयी। जेल में भूख हड़ताल के दौरान क्रांतिकारी जतिन दास की मृत्यु ने और बगावत पैदा कर दी। अंत में सरकार को झुक कर जेल की दशा सुधारनी पड़ी।
चूमा फांसी का फंदा:
लाहौर षड़îंत्रा केस में जयगोपाल की गवाही बहुत खतरनाक सिद्ध हुई. अंत में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को मृत्युदंड मिला और उनके अन्य साथियों को काला पानी की लम्बी सजाएँ। पूरा देश सजा सुन कर रो पड़ा।  फांसी के लिए 24 मार्च 1931 की तारीख तय हुई पर चालाकी के साथ जनता के आक्रोश के डर से अंग्रेजों ने 23 मार्च को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया। मरने तक भी तीनों के मुख पर एक ही नारा था- -इन्कलाब जिंदाबाद! इन्कलाब जिंदाबाद! इन्कलाब जिंदाबाद !