“दीनबन्धु”
महात्मा जोतीराव फुले ने 24 सितम्बर 1873 को “सत्यशोधक समाज की स्थापना की जिसके सदस्य श्री कृष्णराव पाण्डुरंग भालेकर थे, वे पुणे के जिला न्यायालय में लिपिक थे, सत्यशोधक समाज का कार्य करने के लिये उन्होनें 1874 में नौकरी छोड़ दी और वे समाज के प्रचार के लिये स्थान -स्थान पर सभाएँ आयोजित करने पँवाड़े तथा गीत गाने और भाषण देने आदि कार्य करने लगे। अपनी लेखन क्षमता पर पूरा विश्वास था और वे समझते थे, कि यदि अपना मुख्यालय हो तो सत्यशोधक समाज का कार्य अधिक प्रभाव पूर्ण हो सकेगा। फिर सत्य शोधक की एक सभा हुई, जिसमें पत्र-प्रकाशन पर चर्चा हुई और भालेकर ने पत्र प्रकाशन की पूरी जिम्मेदारी अपने उपर ले ली। समाज के पास पर्याप्त धन न होने से उन्होनें अपने पैसे से मुख्यालय खरीदा और “दीनबन्धु” साप्ताहिक पत्र का पहला अंक 1 जनवरी 1877 को प्रकाशित किया लेकिन दीनबन्धु''को उसके जन्म से ही संकटो ने घेर लिया चूंकि "दीनबन्धु” कट्टरपंथियों पण्डे-पुरोहितों और श्री विष्णु शास्त्रों चिपलूणकर जैसे सत्यशोधक समाज के आलोचकों पर दूर पड़ता था। उसका पाठक वर्ग ब्रह्ममणोंतर था, एक संख्या बहुत कम थी, और दुसरे उन्हें पठन-पाठन में विशेष रूचि नहीं थी। इससे पहले वर्ष दीनबन्धु के वार्षिक ग्राहकों की संख्या सिर्फ 13 थी। आगे 1880 में जब “दीनबन्धु” का स्थातंरण मुम्बई किया गया, तब ग्राहकों की संख्या 370 हो गई फिर अच्छे लेखको की भी कमी थी।
इन सभी मुसीबतों का मुकाबला करते हुए श्री भालेकर अपने खर्च से सन् 1879 तक “दीनबन्धु” को चलाते रहे। इस कार्य में उन्हें बहुत पैसा उधार लेना पड़ा सन् 1880 में श्री नाराययण मेघाजी लोखंडे “दीनबन्धु” के सम्पादक बने।