प्रातः स्मरणीय हमारे समाज सुधारक

महामना फूले, शाहूजी महाराज, कार्ल मार्क्स


भूमिका :- पृथ्वी ग्रह पर एक ओर विषमता है काले, गोरों की अथवा सवर्ण-शूद्रों की जिससे संघर्ष दोनों में होता रहता है, तो वहीं दूसरी तरफ कुछ महापुरुषों की उपलब्धता, समता, मानवता स्थापित करने के लिए, बहुजन हिताय के लिए प्यासे को पानी मिलने के समान है।


तथागत बुद्ध के समय, लाओत्से एवं कन्फ्यूशियस पृथ्वी को अशान्ति से शान्ति की ओर ले जा रहे थे। जब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ और विश्व दो भागों में बंट गया (1) अमेरिकी गुट (2) रूसी चीनी गुट (साम्यवादी) तब भारत के प्रधानमंत्री नेहरू जी, मिस्र के कर्नल नासिर, यूगोस्लाविया के मार्शल टिटो गुट निरपेक्षता का प्रयास कर रहे थे।


तथागत बुद्ध, कबीर की समता परक श्रृंखला को तेज धार देने वाले महामना फूले ने जिस बहुजन हिताय का प्रारम्भ 1827-1890 के मध्य किया उसी कार्य को भारत भूमि पर छत्रपति शाहूजी महाराज ने बखूबी आगे बढ़ाया।


कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहूजी का जन्म 26 जून 1874 को हुआ था। उनका बचपन का नाम यशवन्त था। तीन वर्ष में उनकी माँ तथा 10 वर्ष की उम्र में उनके पिता का साया उनके ऊपर से हट गया था। इस प्रकार बचपन में उन्हें अपना माता-पिता का भरपूर प्रेम वात्सल्य न मिल सका।


जिस प्रकार ब्राम्हण मित्र की शादी में प्राप्त अपमान ने महामना फूले को बदल दिया उसी प्रकार एक अवसर पर शाहूजी महाराज गोदावरी नदी में स्नान करने के बाद जब ब्राम्हण (पन्डे) ने बिना स्नान किये, पुराण के श्लोकों द्वारा ब्राम्हणी कर्मकाण्ड करवाया तो कोल्हापुर नरेश ने आपत्ति प्रकट की। इस पर पन्डा बोला आप शूद्र हैं अतः आपके लिए मेरा स्नान करना, वेद का श्लोक पढ़ना बिल्कुल आवश्यक नहीं है।


शाहूजी महाराज ने सोचा कि जब एक राजा के साथ ऐसा व्यवहार हो रहा है तो यह कलम कसाई जन साधारण पिछड़ों, दलितों के साथ कितना अमानवीय व्यवहार करता होगा। उन्होंने 1902 में अपने राज्य में 50% आरक्षण पिछड़ों दलितों के लिए किया। डा0 अम्बेडकर को आर्थिक मदद शिक्षा में दी क्योंकि शाहूजी महाराज जानते थे कि पिछड़ों, दलितों के आगामी मसीहा डा0 अम्बेडकर ही होंगे।


शाहूजी महाराज ने जून 1873 में महामना फूले द्वारा स्थापित “सत्य शोधक समाज' को गाँव-गाँव ले जाकर ब्राम्हणी संस्कृति पर प्रहार करने के राज्य द्वारा संचालित गायक मण्डलियां बनवाईं, विधवा विवाह को राज्याश्रय दिया। बहुजन संस्कृति के उत्थान से पूना के पेशवा बेचैन हो गये, विशेषकर तिलक की बेचैनी अधिक बढ़ गयी। बाल गंगाधर तिलक ने एक ब्राम्हण को कोल्हापुर नरेश के पास भेजा कि आरक्षण देकर आप जातिवाद का रोग फैला रहे हैं।


शाहूजी महाराज उस ब्राम्हण को अपने अस्तबल (घुड़साल) में ले गये। तथा मुँह में घोड़े के लगे झोलों का चना दाना एक मैदान में ढेर, एक स्थान पर करा दिया। बाद में सभी घोड़ों को चना-दाना खाना खाने के लिए छोड़ दिया। जवान, ताकतवर घोड़े तो चना-दाना खा सके परन्तु बूढ़े, कमजोर घोड़े दाना के स्थान पर ताकवर घोड़ों की लातें ही खाते रहे। ऐसा देख वह ब्राम्हण बिना तर्क वापस चला गया।


शाहूजी महाराज ने कहा कि बहुजन समाज की हालत कमजोर घोड़ों के समान है। आरक्षण द्वारा यह सामाजिक समता का छोटा सा प्रयास है अभी और काम भी करने हैं जैसे ब्राम्हण पुरोहितों के स्थान पर प्रशिक्षण देकर बहुजन समाज के पुजारी बनाये जायें। शिक्षा का प्रचार प्रसार कर अन्धविश्वास पाखण्ड से बहुजनों को निकाला जाये।


इसी क्रम में जर्मनी में जन्मे कार्ल मार्क्स 1818-1883 जन्म से पहले यहूदी थे, बाद में वे इसाई बन गये। कार्ल मार्क्स से पूर्व पश्चिम के तमाम दार्शनिकों ने गरीबों के प्रति चिन्तन मनन किया परन्तु उनका व्यवाहारिक लाभ वहाँ के गरीबों, उपेक्षितों को न मिल सका। कार्ल मार्क्स की जीवन शैली पर हीगल दार्शनिक का बड़ा प्रभाव था। उन्होंने अपने मित्र एन्जिल की मदद से गरीब, सर्वहारा मजदूरों, शोषितों के उत्थान के लिए पूँजीवाद को जघन्य अपराध बताया। धर्म को अफीम का नशा बताया। उन्होंने तमाम किताबें लिखीं परन्तु "दास कैपिटल” सर्वाधिक प्रसिद्ध है। वे प्रथम वैज्ञानिक समाज शास्त्री थे। कार्ल मार्क्स व्यक्तिगत सम्पत्ति के विरोधी थे। क्योंकि धन सम्पदा ही आदमी को लोभी, भ्रष्टाचारी बनाती है। वह वर्ग विहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। हर समस्या के हल हेतु कार्ल मार्क्स वाद, प्रतिवाद, संवाद को आवश्यक मानते थे।


बाबा साहब डा0 अम्बेडकर जो कि अर्थशास्त्री एवं समाजशास्त्री भी थे उन्होंने 1954 में कार्ल मार्क्स की समालोचना तथागत बुद्ध से की है। आज भी विश्व मजदूरों के मध्य जुलाई 1854 का यह नारा सर्वाधिक पसन्द है “दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ, तभी शोषण से मुक्ति होगी।"


अन्त में हम सबको अपने समाज सुधारकों के अधूरे स्वप्नों को पूरा करने का संकल्प लेना चाहिए तभी हम उनके सच्चे उत्तराधिकारी होंगे।